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विमर्श

हिंदी नवजागरण की परिकल्पना पर पुनर्विचार की जरूरत

राजकुमार


हिंदी नवजागरण की अवधारणा ज्ञान के विशेष पैराडाइम के अंतर्गत , जिसे सुविधा के लिए औपनिवेशिक आधुनिकता का पैराडाइम कह सकते हैं , गढ़ी गई थी। आधुनिकता की ज्ञानमीमांसा के निकष पर ही समस्याएँ चिन्हित की गईं और उसी के अनुरूप समाधान सुझाए गए। इक्कीसवीं सदी तक आते-आते ज्ञान का यह पैराडाइम बदल गया। पैराडाइम बदलते ही समस्याओं की पहचान और उनके समाधान के स्वरूप में भी बदलाव आ गया। उन्नीसवीं सदी में जन्मी विचारधाराओं को यथावत दुहराकर न तो आज की समस्याओं की सम्यक पहचान संभव है और न ही उनका समाधान। इसलिए हिंदी नवजागरण की परिकल्पना और उसके द्वारा सुझाए गए विकल्पों पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। क्योंकि पुराने पैराडाइम के तहत दिए गए जो उत्तर पहले सही लगते थे , वे अब कारगर नहीं लगते। इसी परिप्रेक्ष्य में हिंदी नवजागरण की अवधारणा और उससे जुड़ी समस्याओं को नए सिरे से समझने की शुरुआती कोशिश इस लेख में की गई है।

1857 के विद्रोह में मध्यवर्ग और व्यवसायियों/उद्यमियों की भूमिका प्रायः नगण्य रही है। किंतु विद्रोह के बाद घटित होनेवाले नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन में इन्हीं दो वर्गों की केंद्रीय भूमिका रही। नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन में नेतृत्व इन्हीं दो वर्गों के हाथ में रहा। 1857 के विद्रोह और परवर्ती नवजागरण के चरित्र में जो अंतर दिखाई पड़ता है, उसकी व्याख्या इनके वर्ग-चरित्र में आए बदलाव के सहारे की जा सकती है। इसी कारण नवजागरण कालीन चिंतकों के दृष्टिकोण में अंग्रेजी राज के प्रति एक खास तरह की दुविधा दिखाई पड़ती है। वे अंग्रेजी राज की तारीफ करते हैं किंतु साथ ही कुछ मुद्दों पर उसकी आलोचना भी करते हैं। इस दुविधा को इतिहासकार सुधीर चंद्र ने अपनी पुस्तक आप्रेसिव प्रेजेंट में 'एंबीवैलेन्स' का नाम दिया है। 'एंबीवैलेन्स' का हिंदी में 'आविकर्षण' के रूप में अनुवाद किया गया है। नवजागरण कालीन चिंतकों में राष्ट्रभक्ति-राजभक्ति, स्त्रियों की स्वाधीनता और मुसलमानों को लेकर दुविधा दिखाई पड़ती है। ऐसा आविकर्षण केवल हिंदी नवजागरण तक सीमित नही है, दूसरी भाषाओं के नवजागरण में भी इन मुद्दों को लेकर ऐसा ही आविकर्षण मौजूद है।

इतिहासकार रंजीत गुहा ने अपनी पुस्तक 'सम एलीमेंट्री ऐस्पेक्ट्स ऑफ पीजेंट इनसर्जेन्सी इन कॉलोनियल इंडिया' में लिखा है कि 57 के विद्रोहियों के दृष्टिकोण में अंग्रेजी राज के प्रति एक सचेत शत्रुता का भाव था। वे अंग्रेजी राज को उखाड़कर अपना शासन कायम करना चाहते थे और अंग्रेजी राज की किसी भी सकारात्मक भूमिका को स्वीकार नहीं करते थे। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपने एक निबंध '1857 और हिंदी नवजागरण' में भारतेंदु युगीन हिंदी नवजागरण के चिंतकों के दृष्टिकोण और 57 के विद्रोहियों के दृष्टिकोण में दिखाई देनेवाले अंतर की विस्तार से चर्चा की है। वे रामविलास शर्मा के इस तर्क से सहमत नहीं हो पाते कि भारतेंदु युग हिंदी नवजागरण का दूसरा चरण है। उल्लेखनीय है कि रामविलास शर्मा 1857 के विद्रोह को हिंदी नवजागरण का प्रथम चरण मानते हैं और भारतेंदु युग को उसकी निरंतरता में दूसरा चरण। लेकिन जैसाकि ऊपर कहा गया, हिंदी नवजागरण को 1857 के विद्रोह की निरंतरता में देखना सही नहीं है। 1857 के विद्रोह और हिंदी नवजागरण के बीच अंग्रेजी शासन के प्रति दृष्टिकोण में आए अंतर के साक्ष्य पर 57 और भारतेंदु युग के बीच निरंतरता से ज्यादा विच्छिन्नता के तत्व परिलक्षित होते हैं।

भारतेंदु युगीन हिंदी नवजागरण की एक बड़ी समस्या यह है कि इसमें कथित उर्दू परंपरा में लिखे गए साहित्य की चर्चा ही सिरे से गायब है। हिंदी नवजागरण की शुरुआत ही भारतेंदु के इस कथन से मानी गई है कि 1873 में हिंदी नए चाल में ढली। उर्दू को आप हिंदी की शैली मानें या उसकी परिकल्पना को ही अस्वीकार करें, लेकिन सच्चाई है कि हिंदी के नए चाल में ढलने से पहले उर्दू में साहित्य लिखने का सिलसिला शुरू हो चुका था। इसलिए फारसी लिपि या उर्दू में फारसी-अरबी के शब्दों को जबर्दस्ती ठूँसने की आलोचना करने के बावजूद हिंदी जाति के नवजागरण की चर्चा से उर्दू में लिखे गए साहित्य को आप बाहर नहीं कर सकते। ऐसा करने से उसकी सांप्रदायिक परिणति की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं और अंततः वही हुआ भी। मुख्य बात यह है हिंदी क्षेत्र की व्यापकता और भाषायी जटिलता के कारण यहाँ ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हुईं कि तेलगू, बांग्ला या मराठी की तरह हिंदी का कोई एक रूप सुनिश्चित करना और बाकी रूपों को बाहर कर देना सभी को स्वीकार्य निर्णय नहीं बन पाया। फारसी और फिर उर्दू की परंपरा के विकास के कारण हिंदी के ही कई रजिस्टर बन गए। कई बार तो एक ही समय में अलग-अलग परंपरा से जुड़े लोग इन रजिस्टरों का अलग-अलग ढंग से उपयोग करते दिखाई पड़ते हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम इनमें से किसी एक रूप के आधार पर हिंदी का स्वरूप स्थिर करने की कोशिश करते हैं। हिंदी, हिंदुस्तानी और उर्दू के बीच खींचतान के समूचे इतिहास को इसी परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए। भारतेंदु युगीन हिंदी नवजागरण की समस्या यह है कि उसने हिंदी का एक सही रूप तय कर बाकी रूपों को प्रकारांतर से अवैध घोषित कर दिया और उनके बारे में किसी भी प्रकार के चिंतन-अध्ययन का ही निषेध कर दिया। उर्दू परंपरा में लिखे गए साहित्य को हिंदी नवजागरण के दायरे से बाहर कर देने के बावजूद भारतेंदु को इस बात का एहसास था कि उर्दू शायरी की परंपरा से भिन्न खड़ी बोली हिंदी में कविता लिख पाना आसान नहीं होगा। विद्वानों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि हिंदी को उर्दू से अलगाने के बावजूद स्वयं भारतेंदु उर्दू में रसा नाम से कविता क्यों लिखते थे। यही नहीं, इस बात पर भी नए सिरे से विचार किया जाना चाहिए कि नई चाल की हिंदी के समर्थक भारतेंदु अपनी ज्यादातर कविताएँ ब्रज भाषा में क्यों लिखते हैं। खड़ी बोली में तो उन्होंने 'अमीर खुसरो के वजन पर सिर्फ मुकरियाँ ही लिखीं। एक खास तरह की हिंदी की वकालत करने के बावजूद भारतेंदु के लेखन में उर्दू और ब्रज भाषा की उपस्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण है। यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो इससे हिंदी क्षेत्र के भाषायी मानचित्र की जटिलता को समझने में मदद मिल सकती है।

असल में भारतेंदु संक्रमण कालीन दौर के रचनाकार-चिंतक हैं, जहाँ कई तरह के विचार और प्रभाव तो सक्रिय है लेकिन इनमें से किसी को निर्णायक बढ़त हासिल नहीं हुई है। भारतेंदु के रचनात्मक व्यक्तित्व में कई धाराएँ-उपधाराएँ सक्रिय दिखाई पड़ती हैं। इसीलिए उर्दू और ब्रज भाषा की साहित्यिक परंपरा के प्रति कम से कम रचनात्मक स्तर पर उनके यहाँ कुछ गुंजाइश बची हुई है।

किंतु द्विवेदी युग तक आते-आते अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के परिणामस्वरूप भारत के तत्कालीन चिंतक इस नतीजे पर पहुँचे कि भारत की पराधीनता का मुख्य कारण ये है कि यहाँ पश्चिमी ढंग के राष्ट्रवाद का विकास नहीं हो पाया। भारत की मुक्ति और एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में उसके विकास के लिए उसे पश्चिमी राष्ट्रों के वजन पर पुनर्गठित करना होगा। अब इस बात का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया कि भारतीय सभ्यता में स्वाभाविक रूप से विकसित होनेवाली प्रवृत्तियों को केंद्र में रखकर 'आधुनिक' भारत की परिकल्पना की जाए। इसके बजाय सारा जोर इस ओर चला गया कि भारतीय सभ्यता की उन विशेषताओं को चिन्हित किया जाए, जिन्हें खींच-खाँच कर पश्चिमी राष्ट्रवाद के साँचे में फिट किया जा सके।

द्विवेदी जी समेत उस समय के बुद्धिजीवियों को ये बात सालने लगी कि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्रवाद की परिकल्पना कैसे संभव होगी। भारत पश्चिमी राष्ट्रों से इस मायने में भिन्न था कि यहाँ कई भाषाएँ बोली जाती थीं। किंतु सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जानेवाली भाषा के रूप में हिंदी को खड़ा कर राष्ट्रभाषा बनने के उसके दावे को मजबूत करने के लिए ऐसी हिंदी की परिकल्पना की गई, जिसमें हिंदी के विविध रूपों और तथाकथित जनपदीय भाषाओं/बोलियों के लिए कोई जगह नहीं बची। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय सभ्यता में भाषाओं के विकास और उनके पारस्परिक संबंध को या तो नजरअंदाज कर दिया गया या उसको समझने का विवेक ही नहीं उत्पन्न हो पाया। यदि समूचे भारत के भाषायी मानचित्र की चर्चा न भी की जाय तो भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी प्रदेश में एक ही समय में अलग-अलग कार्यों के लिए और कभी-कभी एक ही कार्य के लिए हिंदी के भिन्न-भिन्न 'रजिस्टर' का इस्तेमाल होता रहा है। हिंदी प्रदेश का भाषायी स्वरूप हमेशा बहुभाषी रहा है। भाषायी स्वरूप को लेकर असहमतियाँ हो सकती हैं और होनी भी चाहिए, लेकिन उनके अस्तित्व को ही दरकिनार कर गढ़ी गई हिंदी नवजागरण की कोई भी परिकल्पना, नेक इरादों के बावजूद, आत्मघाती और अंततः सांप्रदायिक होने के लिए अभिशप्त है।

किसी एक भाषायी रजिस्टर पर केंद्रित हिंदी की परिकल्पना से जितनी समस्याएँ सुलझती हैं उससे ज्यादा समस्या पैदा हो जाती है। हिंदी प्रदेश के भाषायी मानचित्र को जनपदीय बोलियों और राष्ट्रीय भाषा के द्वि-आधारी विरुद्धों में रखकर देखने से उत्तर भारतीय भाषाओं के अंतर्संबंध को समझने-समझाने की अभी तक जो कोशिश होती आई है, उस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। असल में उत्तर भारतीय भाषाओं को किसी अन्य प्रसंग में लिखे गए ए.के. रामानुजन के वक्तव्य को किंचित परिवर्तित करते हुए कहें तो, एक ही सातत्य या स्पेक्ट्रम के क्रमशः परिवर्तित होते हुए हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। कई बार इसका एक छोर दूसरे छोर से काफी अलग लगता है, लेकिन है वो उसी स्पेक्ट्रम का हिस्सा। इस स्पेक्ट्रम में दिखाई पड़नेवाले भाषायी परिवर्तन को चोटियों और घाटियों के रूपक के जरिये व्याख्यायित कर सकते हैं। चोटियाँ इस स्पेक्ट्रम के वो बिंदु हैं, जहाँ उनका अंतर आत्यंतिक रूप में दिखाई पड़ता है और घाटियाँ वह स्थल हैं, जहाँ ये तीक्ष्णता क्रमशः ढलान पर उतरते हुए एक दूसरी भाषायी चोटी की ओर चढ़ने लगती है। ये भाषायी घाटियाँ ऐसे पॉकेट हैं, जहाँ एक भाषा या बोली का रजिस्टर धीरे-धीरे दूसरी भाषा के रजिस्टर में तब्दील होने लगता है। मनुष्य के शरीर में फैली हुई नसों की तरह ये भाषाएँ परस्पर जुड़ जाती हैं। इनकी सीमाएँ धुँधली, अस्पष्ट और खुली हुई हैं। इसीलिए इन भाषाओं/बोलियों के रजिस्टर दूसरी बोली या भाषा से, आधुनिक युग से पहले तक, जुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं। राजनीतिक-आर्थिक सांस्कृतिक कारणों से इनमें से किसी एक भाषायी रजिस्टर का दायरा बढ़ जाता है और उसे ही कुछ लोग भाषा या राष्ट्र की भाषा के रूप में पुरस्कृत करने लगते हैं। इसमें भी कोई हर्ज नहीं, लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब किसी भाषायी रजिस्टर विशेष को राष्ट्र की भाषा के रूप पुरस्कृत करने की प्रक्रिया में अन्य भाषायी रजिस्टरों को जनपदीय बोली के रूप में अवमूल्यित या तिरस्कृत कर दिया जाता है। यहाँ तक कि उन्हें साहित्य और कला की भाषा के रूप में भी आगे जारी रखने के औचित्य का निषेध कर दिया जाता है। यदि हम भाषा और बोली के युग्म में हिंदी प्रदेश की भाषायी प्रकृति पर विचार करने के बजाय उनके अंतर्संबंध के नैरंतर्य पर विचार करें तो हम उन गलतियों को दोहराने से बच सकते हैं, जिनका सामना हिंदी जाति की एक भाषा खड़ी करने के यांत्रिक रवैये के कारण अभी तक हम करते रहे हैं। उत्तर भारत की भाषाओं/बोलियों में नैरंतर्य का एक बड़ा प्रमाण ये है कि क्रिया रूपों अथवा उच्चारण में कुछ अंतर के बावजूद इनके शब्द भण्डार में कोई विशेष अंतर नहीं है।

यह सही है कि अठारहवीं शताब्दी में हिंदी के उस भाषायी रजिस्टर में जिसे आज उर्दू कहते हैं, बोल-चाल के शब्दों को निकालकर फारसी और अरबी के शब्दों की खूब भर्ती की गई। नतीजा ये हुआ कि इस परंपरा में लिखे गए साहित्य का दायरा अरबी-फारसी जाननेवाले कुछ अभिजनों तक ही सीमित हो गया और यहाँ की लोक भाषाओं से उसका संबंध कमजोर पड़ गया। इस प्रवृत्ति की आलोचना करना तो ठीक था, लेकिन इस परंपरा में लिखे गए साहित्य की उपलब्धियों का सिरे से निषेध कर 'नए चाल में ढली' हिंदी में साहित्य लिखने और उसे इस परंपरा से अलग दिखाने के लिए जैसा साहित्य लिखा गया, उसमें इस परंपरा की साहित्यिक उपलब्धियों से कुछ भी न ग्रहण करने का भाव ज्यादा था।

यदि भारतेंदु युग में उर्दू की परंपरा से नई हिंदी का संबंध-विच्छेद हुआ तो द्विवेदी युग की उपलब्धि ये है कि इस दौर में ब्रजभाषा की परंपरा से भी उसे काट दिया गया। रीति विरोधी अभियान चलाकर ये सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि ब्रजभाषा में आधुनिक युग की संवेदना वहन करने की सामर्थ्य नहीं है। ब्रजभाषा में तो पतनशील सामंती मानसिकता की कामुक शृंगारिक कविताएँ ही लिखी जा सकती हैं। रीतिकालीन शृंगारिक कविताओं को ही नहीं, स्त्री लोकगीतों को भी विक्टोरियन नैतिकता के प्रभाव में अश्लील घोषित कर दिया गया जबकि इतिहास यह है कि आधुनिक योरोपीय भाषाओं में भी अपने क्लासिक साहित्य और ज्ञान को आत्मसात कर कुछ-कुछ वैसा ही साहित्य लिखा गया था जैसा रीतिकालीन कविताओं में दिखाई पड़ता है इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया कि सूर, मीरा से लेकर न जाने कितने भक्त कवियों ने इसी भाषा में कविताएँ लिखी हैं। रीतिकालीन दौर में भी शृंगारिक कविताएँ लिखनेवाले कवियों से ज्यादा ऐसे कवियों की संख्या है, जिन्होंने भक्ति-प्रधान कविताएँ लिखी हैं। यही नहीं, कथित रीतिकाल के दौर में ही 60 से भी अधिक संख्या में वीरकाव्य-लिखे गए हैं। दैनंदिन जीवन से संबंधित समस्याओं पर लिखी गई कविताओं के साथ-साथ नीतिपरक कविताएँ भी इस दौर में कम नहीं लिखी गईं। स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र, नरोत्तमदास और जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' जैसे आधुनिक दौर के कवियों के यहाँ भी वैसी कविताएँ नहीं मिलतीं, जिनका रीति-विरोधी अभियान के नाम पर विरोध किया गया। असल में उर्दू के दावे को खारिज करना तो आसान था, लेकिन उर्दू के दावे को खारिज करने के बाद ब्रजभाषा के दावे को खारिज करना बहुत मुश्किल था। साहित्यिक उपलब्धि की दृष्टि से तो खड़ी बोली कहीं से ब्रज भाषा के सामने खड़ी ही नहीं होती। उर्दू को दरकिनार करने के बाद साहित्य की भाषा के रूप में व्यापकता और विस्तार की दृष्टि से भी ब्रजभाषा का दायरा खड़ी बोली के मुकाबले बहुत विस्तृत था। गुजरात से लेकर बंगाल तक ब्रजभाषा में साहित्य लिखने की परंपरा दिखाई पड़ती है। खड़ी बोली के पक्ष में दूसरा तर्क ये दिया गया कि ब्रजभाषा में गद्य का पर्याप्त विकास नहीं हुआ, लेकिन यदि उर्दू परंपरा के विकास को हिंदी से अलग कर दें, तो उस समय तक हिंदी में ही गद्य का कौन सा विकास दिखाया जा सकता था। ये सही है कि फोर्ट विलियम कॉलेज, ईसाई मिशनरियों और अन्य लोगों के सहयोग से उन्नीसवीं शताब्दी में हिंदी गद्य का तेजी से विकास हुआ। जो शोध हुए हैं, उनके आधार पर ये कहना भी पूरी तरह सही नहीं है कि ब्रजभाषा में गद्य का विकास ही नहीं हुआ। सबसे पुराने व्याकरण और शब्दकोश ब्रजभाषा के ही बनाए गए और अनेक संस्कृत ग्रंथों का ब्रजभाषा-गद्य में अनुवाद किया गया। इन सारे तथ्यों पर ध्यान देने के बाद ये बात समझ में आती हैं कि रीतिविरोधी अभियान के नाम पर वास्तव में ब्रजभाषा के साहित्यिक-वैचारिक अवदान का निषेध किया जा रहा था।

चूँकि हिंदी नवजागरण की अवधारणा किसी न किसी रूप में आधुनिकता के प्रोजेक्ट के साये में विकसित हो रही थी और इस प्रोजेक्ट के मुताबिक पहले से चली आ रही सांस्कृतिक और वैचारिक परंपराएँ व्यर्थ और पिछड़ी हुई मान ली गई थीं, इसलिए आधुनिकता के प्रोजेक्ट को हिंदी में उतारने के लिए हिंदी का ऐसा रजिस्टर ज्यादा उपयुक्त लगा, जिस पर परंपरा का कोई बोझ ही नहीं था। खड़ी बोली में आधुनिक युग से पहले साहित्यिक-वैचारिक लेखन की कोई उल्लेखनीय परंपरा नहीं थी, इसलिए उसमें पूर्व परंपरा से संबंध-विच्छेद करने की कोई जरूरत ही नहीं थी। परंपरा की चिंता किए बिना, जो चाहें, जैसे चाहें, लिख सकते थे। उल्लेखनीय है कि मुगलकाल में उर्दू का विकास भी कुछ इसी तरह हुआ था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुजफ्फर आलम ने अपने एक लेख में लिखा है कि उर्दू में लेखन के पीछे दो शर्तें लगाई गई थीं, पहली यह कि इसकी लिपि फारसी होगी, दूसरी यह कि बोल-चाल की भाषा में शब्द न उपलब्ध होने पर फारसी या अरबी से शब्द लिए जाएँगे। खड़ी बोली उर्दू में बिल्कुल नए सिरे से साहित्य लिखना ब्रज-भाषा की तुलना में इसलिए आसान था, क्योंकि ब्रजभाषा में साहित्य की एक पूर्व परंपरा थी, जबकि खड़ी बोली में साहित्य लिखने की कोई उल्लेखनीय परंपरा नहीं थी। खड़ी बोली उर्दू की तरह ही खड़ी बोली हिंदी में जिस तरह के साहित्य-लेखन की शुरुआत हुई, उसका न तो उर्दू की परंपरा से, न ब्रजभाषा की परंपरा से कोई उल्लेखनीय संबंध दिखाई पड़ता है। लोकसाहित्य की परंपरा से संबंध स्थापित करने का तो खयाल भी नहीं आता। परंपरा से विच्छेद या परंपरा से मुक्ति के इन दोनों उदाहरणों की विशद चर्चा तो यहाँ संभव नहीं है, फिर भी खड़ी बोली हिंदी में लिखे गए आधुनिक साहित्य पर दो चार बातें करना बेहद जरूरी है।

रामविलास शर्मा ने लिखा है कि हिंदी नवजागरण में अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी ज्ञान की कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं रही। थोड़ी रियायत देते हुए उन्होंने ये जरूर जोड़ दिया है कि अंग्रेजी साहित्य की मानवतावादी और प्रगतिशील परंपरा भी रही है और उससे सीखने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन आधुनिक हिंदी साहित्य की गंभीरता से पड़ताल करने पर ये बात स्पष्ट हो जाती है कि उसकी मूल प्रेरणा और आदर्श अंग्रेजी साहित्य ही रहा है। ज्यादातर आधुनिक हिंदी साहित्य पश्चिम से प्रेरणा लेते हुए और उसी के मानदंड पर लिखा गया है। कहनेवाले चाहें तो कह सकते हैं कि ये अंग्रेजी साहित्य की नकल है। लेकिन अंग्रेजी के प्रसिद्ध उत्तर औपनिवेशिक चिंतक होमी भाभा ने नकल में भी अकल की बात करते हुए मिमिक्री और हाइब्रिडिटी (संकरता) के सिद्धांतों के सहारे औपनिवेशिक देशों में लिखे गए साहित्य के महत्व का बहुत जोर-शोर से प्रतिपादन कहते हुए इस प्रकार के साहित्य की उपनिवेशवाद-विरोधी भूमिका को रेखांकित करने का गंभीर प्रयास किया है। होमी भाभा के इस तर्क को सामान्य रूप से आज भी दोहराया जा रहा है। लेकिन वास्तव में ये एक पैराडाइम शिफ्ट था। प्रसिद्ध इतिहासकार रणजीत गुहा के अनुसार पैराइाइम के इस युद्ध में पश्चिम की विजय हुई; अद्भुत पर अनुभूति की विजय हुई। विद्वानों ने रणजीत गुहा के इस तर्क की आलोचना करते हुए दिखाया है कि पश्चिम के विपरीत भारतीय यथार्थवादी उपन्यास विस्मय, फैंटेसी और काव्यत्व से पूर्णतः विच्छिन्न नहीं थे। इसलिए ये कहना सही नहीं है कि इस पैराडाइम शिफ्ट के कारण पहले से चली आ रही भारतीय साहित्यिक परंपरा का पूरी तरह निषेध हो गया। ये तर्क सही है, पर असल बात ये है कि इस पैराडाइम शिफ्ट के बाद साहित्य, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान की बुनियाद आधुनिकता की ज्ञानमीमांसा पर टिक जाती है और भारतीय ज्ञानमीमांसा की परंपरा का इस्तेमाल सिर्फ खाली जगहों को भरने के लिए, एक ऐसा संस्करण तैयार करने के लिए किया जाता है, जिसकी पैकेजिंग भारत में की गई हो। इसे कुछ इस तरह समझना चाहिए, जैसे उत्पादन भले ही भारत में हो रहा हो लेकिन उसकी टेक्नालाजी पश्चिम से ली गई हो। इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहिए कि लिखा भले ही भारतीय भाषाओं में जा रहा है, लेकिन उसका विन्यास और उसकी अंतर्दृष्टि पश्चिम से ली गई है। भारतीय भाषाओं में लिखने से कोई साहित्य भारतीय नहीं हो जाता और न ही भारतीय भाषाओं में चिंतन करने से कोई चिंतन भारतीय हो जाता है।

उत्तर औपनिवेशिक चिंतकों द्वारा तैयार मॉडल के विकल्प के रूप में मैं एक दूसरे किस्म के मॉडल का प्रस्ताव करने की जुर्रत कर रहा हूँ। थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिए कि भारतीय ज्ञानमीमांसा और साहित्यिक परंपरा की नियामक भूमिका को स्वीकार करते हुए आधुनिकता की ज्ञानमीमांसा से भी हमने कुछ तत्व लिए होते तो उसकी सूरत और सीरत कुछ और होती। राजनीतिक और सामाजिक चिंतन के क्षेत्र में गांधी ने और काव्य के क्षेत्र में कुछ ऐसी ही कोशिश रवींद्रनाथ ठाकुर ने की थी। किंतु ये इकलौती कोशिशें थीं और परवर्ती चिंतकों और रचनाकारों ने इन्हें परंपरावादी, रहस्यवादी कहकर नकार दिया। परिणाम ये हुआ कि साहित्य, संस्कृति और ज्ञान के क्षेत्र में जो भी चिंतन हुआ उसकी नियामक प्रेरणा पश्चिमी आधुनिकता की ज्ञानमीमांसा से तय होती रही। हिंदी में तो सामान्य रूप से आज जैसी स्थिति है, वो और भी विडंबनापूर्ण है। यहाँ तो उस ज्ञान को, जिसका विकास पश्चिम में 30-40 के दशक में हुआ था, आज भी भारतीय चिंतन के रूप में पूरे भक्तिभाव से दोहराया जा रहा है। जबकि पश्चिम में भी इस ज्ञान को अब कोई तवज्जो नहीं दे रहा। इसीलिए आधुनिक युग में भारतीय भाषाओं में जो साहित्य लिखा गया है, उसमें ज्यादा ऐसा नहीं है, जिसे सही मायने में भारतीय साहित्य कहा जा सके। जो है, वह पश्चिमी आधुनिकता के सर्वव्यापी प्रभाव के बावजूद है।

यह अकारण नहीं है कि यद्यपि आधुनिक हिंदी साहित्यिक चिंतन में भक्ति आंदोलन के महत्व का बढ़-चढ़कर बखान किया जाता है, किंतु विरली ही कोई ऐसी रचना होगी, जिसे पढ़कर लगे कि ये रचना भक्ति संवेदना से गुजकर लिखी गई है। परंपरा का किताबी ढंग से बखान तो खूब किया गया, लेकिन परंपरा से रचनात्मक स्तर पर कुछ भी सीखने और ग्रहण करने के चिह्न कुछ ही रचनाओं में दिखाई पड़ते हैं। मतलब बिल्कुल साफ है, परंपरा का गुणगान कीजिए और कुछ भी लिखते समय उसे भूल जाइए। कुछ विद्वान गरीबी, भुखमरी, किसान, मजदूर जैसे विषयों पर लिखी गई रचनाओं के आधार पर ये सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि इसकी प्रेरणा भक्तिकालीन साहित्य से आई है। अब उन्हें कौन समझाए कि भक्ति काव्य-संवेदना से उसका कोई संबंध नहीं है। इस प्रकार के विषयों पर लिखी गई रचनाओं का प्रेरणास्रोत पश्चिमी चिंतन और यथार्थवादी साहित्यिक परंपरा है। भक्ति आंदोलन न भी होता तो भी इन विषयों पर इसी ढंग से लिखा जाता। दूसरे देशों में, जहाँ भक्ति साहित्य जैसी कोई परंपरा नहीं है, इन विषयों पर थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ इसी ढंग से लिखा गया है। इन विषयों पर लिखी गई रचनाओं को देखने से शायद ही कहीं ऐसी प्रतीति होती हो कि उन्हें भारतीय सांस्कृतिक एवं बौद्धिक परंपरा को आत्मसात करके लिखा गया है। परंपरा के मूल्यांकन से समृद्ध रचनाएँ हिंदी में ज्यादा नहीं हैं। कुल मिलाकर भारतेंदु की कुछ रचनाओं, प्रेमचंद और रेणु के कथा-साहित्य, प्रसाद और मुक्तिबोध की कविताओं के अतिरिक्त कौन सी ऐसी रचनाएँ हैं, जिन्हें भारतीय परंपरा के बीच से निकली हुई रचनाओं के रूप में चिन्हित किया जा सके। विडंबना ये है कि आधुनिक साहित्य में जहाँ भक्ति साहित्य का सचमुच असर दिखाई पड़ता है, उसे रहस्यवादी कह कर खारिज कर दिया जाता है। इसका सटीक उदाहरण है कि भक्ति काल का सबसे अधिक गुणगान करनेवाले रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध की कविताओं को रहस्यवादी कहकर खारिज कर दिया। जबकि उनकी कविता के टेक्स्चर में संत साहित्य की संवेदना की गहरी छाप है। हबीब तनवीर और विजयदान देथा की रचनाओं के बारे में जरूर ऐसा कहा जा सकता है कि वे भारतीय साहित्यिक परंपरा से अनुस्यूत और उसे आगे बढ़ानेवाली रचनाएँ हैं, लेकिन उन पर विचार करने के लिए एक स्वतंत्र लेख की दरकार होगी।

उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील लेखक संघ (1936) के पहले घोषणा-पत्र में भक्तिकालीन साहित्य को पलायन का साहित्य कह कर खारिज कर दिया गया था। प्रेमचंद ने इस अधिवेशन के बहुप्रशंसित अध्यक्षीय भाषण में आधुनिक युग से पहले के समूचे साहित्य को मौजमस्ती और मनबहलाव का साहित्य करार दिया था। बाद में परंपरा के मूल्यांकन के प्रसंग में भले ही उस गलती को दुरुस्त कर लिया गया हो लेकिन रचनात्मक लेखन और वैचारिक चिंतन के क्षेत्र में परंपरा के सकारात्मक मूल्यांकन से कुछ भी ग्रहण करने की जहमत उठाने के निशान विरले ही दिखाई पड़ते हैं।

पश्चिम में आधुनिकता के अभ्युदय के साथ साहित्य और कलाओं को आधुनिकता के प्रोजेक्ट के सहायक के रूप में देखने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी और उन्नीसवीं शताब्दी में यथार्थवाद के अभ्युदय के साथ अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। उल्लेखनीय है कि पश्चिम में समाज विज्ञान का विकास विज्ञान की पद्धति की बुनियाद पर हुआ था और इसीलिए समाज का अध्ययन करनेवाले शास्त्रों को 'समाज विज्ञान' के रूप में प्रतिष्ठित करने पर जोर दिया गया। एंगेल्स ने तो मार्क्स के चिंतन का महत्व प्रतिपादित करते हुए स्पष्ट रूप से लिखा कि जैसे डार्विन ने प्रजातियों के विकास के नियम खोज निकाले वैसे ही मार्क्स ने समाज के विकास के नियम खोज लिए। यही कारण है कि लंबे समय तक मार्क्सवाद को समाज के विकास के नियमों की पहचान कराने वाला विज्ञान कहा जाता रहा। फिलहाल इस बहस के विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है, संप्रति विचारणीय मुद्दा ये है कि साहित्य और कलाओं को आधुनिकता के प्रोजेक्ट के अधीन कर देने की परिणति क्या हुई? प्रेमचंद द्वारा प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्षीय भाषण 'साहित्य का उद्देश्य' की चर्चा हम पहले कर चुके हैं, इसी क्रम में प्रेमचंद की उस प्रसिद्ध और बार-बार दोहराई जानेवाली उक्ति के उल्लेख के जरिये हम अपने तर्क को आगे बढ़ाना चाहेंगे। प्रेमचंद ने कहा था, 'साहित्य देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सच्चाई नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सच्चाई है।' प्रेमचंद के इस वक्तव्य पर थोड़ा रुककर विचार करें तो ये स्पष्ट हो जाएगा कि प्रेमचंद यहाँ पर साहित्य के महत्व का जिस प्रकार प्रतिपादन कर रहे हैं, उससे राजनीतिक चिंतन की केंद्रीयता का निषेध नहीं होता। यहाँ राजनीतिक चिंतन के सर्वोपरि महत्व को स्वीकार करते हुए उसी दायरे में और उसी कसौटी पर साहित्य के महत्व को राजनीतिक चिंतन से भी आगे के कदम के रूप में रेखांकित किया गया है। प्रेमचंद अक्सर कहते भी थे कि जो काम गांधी राजनीति में कर रहे हैं, वही काम वो साहित्य के दायरे में कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यहाँ साहित्य के महत्व का प्रतिपादन राजनीतिक प्रोजेक्ट के अधीन ही है, भले ही उसे राजनीति के आगे-आगे चलनेवाली मशाल ही क्यों न कहा गया हो। रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने प्रिय कवि तुलसीदास के साहित्य के मार्फत साधनावस्था के जिस साहित्य को सर्वोत्कृष्ट घोषित किया और जो पहली नजर में ठेठ भारतीय निकष जान पड़ता है, वास्तव में आधुनिकता के विमर्श से बहुत गहरे प्रभावित निकष है। इसलिए यह अकारण नहीं है कि आधुनिक साहित्य के मूल्यांकन के प्रसंग में वे ठाकुर जगमोहन सिंह के उपन्यास 'श्यामास्वप्न' के बजाय लाला श्रीनिवासदास के 'परीक्षागुरु' को तरजीह देते हैं, क्योंकि वह अंग्रेजी ढंग का नावेल है। इससे यह बात खुलकर सामने आ जाती है कि सब कुछ के बावजूद आधुनिक हिंदी साहित्य अंततः अंग्रेजी ढंग का ही साहित्य है। यह बिल्कुल संभव है कि रामचंद्र शुक्ल ने जान-बूझकर और सचेत रूप से ऐसा न किया हो। लेकिन, जैसा कि कहा जाता है, जादू वही जो सिर चढ़कर बोले; ये आधुनिकता का जादू है, जो हिंदी के लेखकों-आलोचकों के सिर चढ़कर बोल रहा है। फिर चाहे वो रामचंद्र शुक्ल हों, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों या प्रेमचंद ही क्यों न हों। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तो साहित्य को 'ज्ञानराशि का संचित कोश' कह कर साहित्य को आधुनिकता के प्रोजेक्ट के अधीन करने की पहले से चली आ रही प्रक्रिया को जैसे उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचा दिया। रामचंद्र शुक्ल ने द्विवेदी जी के साहित्य-विवेक पर सही टिप्पणी की है : 1. 'कवि और कविता कैसा गंभीर विषय है, कहने की आवश्यकता नहीं। पर इस विषय की बहुत मोटी-मोटी बातें बहुत मोटे तौर पर कही गई हैं। 2. द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है। एक-एक सीधी बात कुछ हेरफेर - कहीं-कहीं केवल शब्दों के ही - साथ पाँच-छह वाक्यों में कही हुई मिलती है। 3. इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्लेवालों को कुछ परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए।' साहित्य की बुनियादी भूमिका के इस अवमूल्यन का परिणाम ये हुआ कि वह आधुनिकता के विमर्श के इर्द-गिर्द घूमने लगा, कभी उसके पीछे-पीछे तो कभी, प्रेमचंद के कथन के वजन पर कहें तो, उसके आगे-आगे।

मनुष्य के सामाजिक जीवन को नितांत भौतिक समृद्धि के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने का परिणाम ये हुआ कि जीवन के वे आयाम, जिनकी सिर्फ भौतिक संदर्भों में व्याख्या एक सीमा के बाद संभव नहीं है, लेकिन जो भौतिक उपलब्धि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, हमारे चिंतन की परिधि से ही बाहर चले गए। भावनाओं, संवेदनाओं और मानवीय जीवन की अस्तित्वमूलक चिंताएँ और मानवीय अस्तित्व की सार्थकता की वे परिकल्पनाएँ, जो भौतिक उपलब्धि से आगे जाती हैं, का भी इस राजनीतिक विमर्श में अवमूल्यन हो गया। यहाँ पर ये ध्यान दिलाने की जरूरत है कि भारतीय चिंतन परंपरा में मानवीय जीवन के अस्तित्व की सार्थकता को कभी भी सिर्फ भौतिक उपलब्धियों के निकष पर तौलने की कोशिश नहीं की गई थी। बहुत पीछे न भी जाएँ तो भक्तिकालीन साहित्य की बुनियादी संवेदना के सहारे भी इसे समझा और समझाया जा सकता है। असल में साहित्य, संगीत और कलाएँ मनुष्य की संवेदना के उन आयामों को जागृत, उद्दीप्त और समृद्ध करती हैं, जहाँ तक आधुनिकता के 'एक आयामी' विमर्श से पैदा होने वाला समाज विज्ञान पहुँच ही नहीं सकता। साहित्य, संगीत और कलाएँ मानवीय अस्तित्व की सार्थकता के उन आयामों को रचती रही हैं, जिनकी चिंता आधुनिकता के विमर्श में कम ही दिखाई पड़ती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे मानवीय अस्तित्व की सार्थकता को सिर्फ भौतिक उपलब्धि के निकष पर परिभाषित करने की प्रक्रिया का अतिक्रमण करती हैं। ऐसा नहीं है कि साहित्य और कलाएँ भौतिक समृद्धि, गैर-बराबरी और किसी भी प्रकार के भेदभाव और शोषण को पूरी तरह से नजर अंदाज करती हैं, लेकिन यह जरूर है कि वे भौतिक समृद्धि को मानवीय अस्तित्व की सार्थकता के एकमात्र निकष के रूप में देखने के विमर्श में ढलने से इनकार करती हैं। इसके बजाय वे मानवीय अस्तित्व की सार्थकता के उन आयामों (कल्पित या वास्तविक) को रचती हैं, जिनके सामने भौतिक समृद्धि का पैमाना फीका लगने लगता है।

इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडेय ने अपने लेख 'गैरियत का गद्य' में लिखा है कि मनुष्य के आत्यंतिक दुखों को इतिहास के दायरे में दर्ज कर पाना नामुनकिन है। सुख-दुख, हर्ष-विषाद की आत्यंतिक मनःस्थितियों के आयाम जिस तरह साहित्य, संगीत तथा कलाओं में आते हैं, वे समाज विज्ञान के विषयों में उस तरह से आ ही नहीं सकते। विडंबना ये है कि आधुनिकता के साथ पैदा होनेवाले समाज विज्ञान के इर्द-गिर्द मंडराने वाला साहित्य अपनी उस बुनियादी भूमिका को चाहे-अनचाहे अप्रासंगिक मानकर छोड़ देता है, जहाँ तक समाज विज्ञान के किसी विषय के लिए पहुँच पाना ही मुश्किल है। उर्दू के कवि मोमिन की एक पंक्ति है, 'तुम मेरे पास होते हो, गोया जब कोई दूसरा नहीं होता।' इसी पंक्ति के वजन पर, चाहें तो, कह सकते हैं कि साहित्य और कलाएँ वहाँ भी मनुष्य के पास होती हैं, जहाँ ज्ञान-विज्ञान के दूसरे अनुशासन पहुँच ही नहीं पाते।

यह अकारण नहीं है कि पहले स्वच्छंदतावादी और फिर आधुनिकतावादी साहित्य और कलाओं में आधुनिकता के इस 'एक आयामी' विमर्श से बाहर निकलने की एक लहूलुहान जद्दोजहद दिखाई पड़ती है। ये सही है कि आधुनिकता के इस लौहपाश से बाहर निकलने में आधुनिक साहित्य और कलाएँ सफल नहीं हुईं, लेकिन इससे उनकी कोशिश का महत्व कम नहीं हो जाता।

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को ज्ञानराशि का संचित कोश मानकर और कविता तथा गद्य के अंतर को मिटाकर और चाहे-अनचाहे साहित्य को पूर्व औपनिवेशिक परंपरा से काटकर जिस प्रकार के साहित्यिक लेखन को पुरस्कृत किया, उसके आदर्श कवि मैथिलीशरण गुप्त ही हो सकते थे। मैथिलीशरण गुप्त की कविता को देखकर लगता है कि जैसे समूची भारतीय परंपरा में उनसे पहले कोई कवि ही नहीं हुआ और वे पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने कविता लिखने का बीड़ा उठाया है। संवेदनात्मक दृष्टि से कुछ नैतिक आग्रहों के पद्य में अनुवाद के अतिरिक्त शायद ही ऐसा कुछ हो, जिसके लिए उनकी कविता को पढ़ना जरूरी लगे। समूची भारतीय काव्य परंपरा में कविता की दुनिया कभी भी इतनी इकहरी और एकायामी नहीं रही, जितनी मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं में दिखाई पड़ती है। स्वाभाविक ही था कि छायावादी काव्य में इस एकायामी इतिवृत्तात्मकता से असंतोष फूट पड़ता। लेकिन जैसा पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि ज्यादातर आधुनिक साहित्य का विकास अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों द्वारा, अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा केंद्रों यानी विश्वविद्यालयों के परिसर में हुआ। इसीलिए छायावादी कविता में कृत्रिम कल्पनाशीलता तो खूब है, लेकिन वैसी कल्पनाशीलता बहुत कम है, जिनका जन्म एक गहरी बेचैनी से होता है और जिसके साक्ष्य कबीर, जायसी, सूर, मीरा और यहाँ तक कि तुलसीदास के साहित्य में दिखाई पड़ते हैं।

यह अकारण नहीं है कि समूचे प्रगतिवादी, यथार्थवादी और यहाँ तक कि आधुनिकतावादी साहित्य में भी गहरी सांस्कृतिक बेचैनी और उहापोह के ऐसे निशान कम ही दिखाई पड़ते, जिनसे ये प्रतीत हो कि ये समूचा साहित्य भारतीय सभ्यता की उस सुदीर्घ परंपरा में लिखा गया है, जिसमें सब कुछ बुरा ही नहीं है, बहुत कुछ अच्छा भी है।

अंत में ये कहना अनुचित नहीं होगा कि सही मायने में भारतीय साहित्य में नवजागरण तो तब होगा जब हम आधुनिकता से पहले की साहित्यिक और ज्ञान परंपरा से तथा लोक परंपरा से, आधुनिकता के निकष को अंतिम सच न मानते हुए, नए सिरे से संवाद स्थापित करेंगे।


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